हमारी भारतीय संस्कृति की परम्परा लगभग विलुप्त होती जा रही है बचपन में सभी बच्चे एक साथ मिट्टी के कच्चे आंगन में खेलना, बचपन की यादें ताजा कर रही है।

बिलासपुर घुमारवीं:13 मार्च 2022 बचपन के वे खेल जो हमें खूब भाते थे। ऐसा लगता था कि जैसे उन खेलों के लिए छुट्टियां आती थीं। लेकिन अब वो खेल कहां हैं ? आज के बच्चों को तो उन खेलों का नाम भी नहीं पता होगा। दोस्तों के साथ अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बोल, छुपन-छुपाई, कबड्डी-कबड्डी, चोर-सिपाही, लब्बा डंगरिया, गिल्ली-डंडा जैसे तमाम खेल मौका मिलते ही खेलना शुरू कर देते थे। लेकिन अब यही खेल गुजरे जमाने के लगने लगे हैं। चलिए एक बार फिर इन खेलों को नाम और तस्वीरों में ही सही, फिर इन्हें याद कर अपनी पुरानी यादें ताजा करते हैं।

समय के साथ हमारे बचपन के मायने भी बदल गये हैं। पहले दिन-दिन भर होने वाली धमाचौकड़ी, बच्चों का शोर शराबा करता झुण्ड और अल्हड़पन सब घर के आँगन तक सीमित हो गया है। वो खेल जिन्हें खेलकर तमाम पीढ़िया बड़ी हुई हैं अब वो खेल हमें तस्वीरों में नजर नजर आते हैं। अब गांव की चौपालों में बच्चों का न तो वो शोर सुनाई देता और न ही शहरों के पार्कों में बच्चे खेलते नजर आते हैं। अब इन खेलों को हम फेसबुक में पढ़कर या तस्वीरों में देखकर मुस्कुरा लेते हैं।

“बचपन में छुट्टियां होते ही गांव जाने के लिए तैयार हो जाते थे, क्योंकि अपने दोस्तों के साथ खूब खेलने को मिलता था। खूब मौज आती थी, अब के बच्चों को तो मोबाइल और टीवी देखने से ही फुर्सत नहीं मिलती, अगर थोड़ा बहुत समय मिला भी तो किताबों से भरे बैग ने उसे पूरा कर दिया।”

ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी‌।
हमने और आपने भी अपने बचपन को मौज-मस्ती से जिया है लेकिन आज के बच्चों का बचपन और आउटडोर खेल इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों ने कहीं न कहीं छीना है।

ये सच है कि वक्त के साथ दुनिया बदलती है, विकास होता है, हमारी सोच और आदतें बदलती हैं, प्राथमिकताएं बदलती हैं…लेकिन इन बदली हुई प्राथमिकताओं में कई बार हम वो चीज़ें पीछे छूट जाती हैं, जो कभी हमारी ज़िंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करती थीं… जैसे वो खेल जिनके साथ हम बड़े हुए हैं। पुराने समय के खिलौने की जगह अब मोबाइल, वीडियो गेम, कम्प्यूटर ने ले ली है। जो कुछ कमी बची थी उसे किताबों से भरे बैग ने पूरी कर दी है। देखकर तो लगता कि पुराने खेल कहीं इतिहास के पन्नों में न दर्ज हो जाएं और हमारी आने वाली पीढ़ी इसे सिर्फ कागजों में खोजती रह जाए।

आंख-मिचौली एक मजेदार खेल है। इस खेल को लड़के-लड़कियां एक साथ या अलग-अलग टोलियां बनाकर खेल सकते हैं। इस खेल में किसी एक खिलाड़ी के आंख में एक कपड़े की पट्टी बांध दी जाती है। यह खिलाड़ी पट्टी बांधे-बांधे अपने आसपास के खिलाड़ियों को पकड़ने की कोशिश करता है जिसे वह पकड़ लेता है तो फिर पट्टी उसके आंखों में बांधी जाती है।

कुछ याद आया आपको, बचपन में ये खेल हम अपने दोस्तों के साथ ऐसे ही मजेदार तरीके तरीके से खेलते थे। इसी को कहीं-कहीं दूसरे तरीके से खेला जाता है। जिसके आंख में पट्टी बंधी होती है उसके सिर पर कई लोग एक-एक करके थप्पी देते हैं। सबसे पहले थप्पी किसनें दी उसका नाम पट्टी बांधने वाले खिलाड़ी को बताना होता है। इस खेल में खिलाड़ियों की संख्या कितनी भी हो सकती है।
लंगड़ी टांग खेल:
ज्यादातर यह खेल लड़कियां खेलती हैं, कई बार लड़के भी इस खेल का मजा लेने से पीछे नहीं हटते। इस खेल को हर जगह अलग-अलग तरीके से खेला जाता है जिसमें एक तरीका ये भी है। इस खेल को खेलने के लिए चौपाल या कहीं भी खुली जगह में नौ खाने बनाने होते हैं। तीन-तीन खानों की तीन लाइनें होती हैं। जो बीज का गोला होता है इसमें क्रास का निशाँ लगा देते हैं। पहले खाने से लेकर आठ खाने तक बारी-बारी खेलना पड़ता है।

बचपन के वे खेल जो हमें खूब भाते थे। ऐसा लगता था कि जैसे उन खेलों के लिए छुट्टियां आती थीं। लेकिन अब वो खेल कहां हैं ? आजके बच्चों को तो उन खेलों का नाम भी नहीं पता होगा। दोस्तों के साथ अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बोल, छुपन-छुपाई, कबड्डी-कबड्डी, चोर-सिपाही, लब्बा डंगरिया, गिल्ली-डंडा जैसे तमाम खेल मौका मिलते ही खेलना शुरू कर देते थे। लेकिन अब यही खेल गुजरे जमाने के लगने लगे हैं। चलिए एक बार फिर इन खेलों को नाम और तस्वीरों में ही सही, फिर इन्हें याद कर अपनी पुरानी यादें ताजा करते हैं।

समय के साथ हमारे बचपन के मायने भी बदल गये हैं। पहले दिन-दिन भर होने वाली धमाचौकड़ी, बच्चों का शोर शराबा करता झुण्ड और अल्हड़पन सब घर के आँगन तक सीमित हो गया है। वो खेल जिन्हें खेलकर तमाम पीढ़िया बड़ी हुई हैं अब वो खेल हमें तस्वीरों में नजर नजर आते हैं। अब गांव की चौपालों में बच्चों का न तो वो शोर सुनाई देता और न ही शहरों के पार्कों में बच्चे खेलते नजर आते हैं। अब इन खेलों को हम फेसबुक में पढ़कर या तस्वीरों में देखकर मुस्कुरा लेते हैं।

“बचपन में छुट्टियां होते ही गांव जाने के लिए तैयार हो जाते थे, क्योंकि अपने दोस्तों के साथ खूब खेलने को मिलता था। खूब मौज आती थी, अब के बच्चों को तो मोबाइल और टीवी देखने से ही फुर्सत नहीं मिलती, अगर थोड़ा बहुत समय मिला भी तो किताबों से भरे बैग ने उसे पूरा कर दिया।”

उन्होंने आगे कहा, “पुरानी यादों को ताजा करने के लिए अब तो एक ही गीत याद आता है।

लूडो, सांप सीढ़ी एक ऐसा खेल है जिसे शहर और गांव हर जगह खेला जाता है। बाकी खेलों की अपेक्षा ये खेल अभी प्रचलन में है। लूडो इसलिए अभी भी प्रचलित है क्योंकि ये अब मोबाइल में भी डाउनलोड करके खूब खेला जाता है। सांप-सीढ़ी में एक से 100 तक की गिनती होती है। इसमें जगह-जगह छोटे बड़े कई सांप होते हैं और कई सीढ़ियां भी। सीढ़ियों से ऊपर जाने का मौका मिलता है सांप से नीचे आ जाते हैं।

छुपन-छुपाई खेल:
ये खेल पहले सर्दियों में खूब खेला जाता था। पुआल के और लकड़ियों के ढेर में कहीं भी छुप जाओ दूसरा साथी खोजता रहता था। एक साथी 100 तक गिनती गिनता तबतक आस-पास सभी साथी छिप जाते। एक-एक करके सभी साथियों को खोजना होता है, अगर इस दौरान जो खिलाड़ी खोज रहा है उसे छुपा हुआ कोई भी साथी पीछे से उसके सिर को छू ले तो उसे दोबारा पूरे साथियों को खोजना होता है।

रस्सी कूदना खेल:
इस खेल को भी ज्यादातर लड़कियां खेलती हैं। इसे पेट कम करने या बजन घटाने का एक अच्छा व्यायाम भी माना जाता है। एक रस्सी को टुकड़े से लगातार कूदना होता है अगर बीच में रुक गये या रस्सी पैरों में फंस गयी तो दूसरे खिलाड़ी को मौका मिलता। दूसरा तरीका ये भी है कि दो लड़कियां रस्सी के एक-एक छोर को पकड़ लें और तीसरी लकड़ी बीच में कूदती है। जो सबसे ज्यादा बिना रुके कूदती है जीत उसी की मानी जाती है।

क्रिकेट और बेसबॉल से मिलता जुलता ये खेल एक वक्त में क्रिकेट से भी ज़्यादा लोकप्रिय हुआ करता था। ये खेल लकड़ी के एक छोटे टुकड़े, यानी गिल्ली और एक और एक डंडे से खेला जाता है। खिलाड़ियों को गिल्ली में इस तरह हिट करना होता है कि वो जितनी दूर हो सके, उतनी दूर जाकर गिरे।

कंचे खेलना :
गाँव के गलियारों में, स्मॉल टाउन के मुहल्लों में, स्कूल के अहाते में, एक वक्त था जब बच्चे अक्सर कंचे खेलते दिख जाते थे। यूं तो ये खेल लड़कों में ज्यादा प्रचलित रहा है, लेकिन कंचे की ये गोलियां लड़कियों के भी खेल-खिलौनों का हिस्सा रही हैं। हालांकि कंचे पूरी तरह से बच्चों की ज़िंदगी से गुम नहीं हुए हैं, लेकिन पहले जितने लोकप्रिय नहीं रहे।

पिट्ठू खेल:
एक समय था जब पिट्ठू का खेल बच्चों में बहुत लोकप्रिय हुआ करता था। इस खेल में दो टीमें होती हैं, एक बॉल होती है, और सात चपटे पत्थर, जिन्हें एक के ऊपर एक रख दिया जाता है। एक खिलाड़ी बॉल से पत्थरों को गिराता है। अब एक टीम का टास्क है कि वो इन पत्थरों को फिर से एक दूसरे के ऊपर रखे, और दूसरी टीम को बॉल मारकर इन्हें रोकना होता है।अगर पत्थर रखते समय खिलाड़ी को बॉल छू जाती है, तो वो खिलाड़ी खेल से आउट हो जाता हैl