बिलासपुर:लोक पारंपरिक दृष्टि से सिंचाई के लिए कुओं से पानी निकलने के लिए विशेष यंत्र बनाए जाते थे।

बिलासपुर घुमारवीं:23 अप्रैल 2022 लोक पारंपरिक दृष्टि से सिंचाई के साधनों में रहट की विशेष महत्ता है। सत्तर के दशक तक रहट प्रमुख आवश्यकताओं में थी। रहट में बैलों को जोतने की परंपरा रही है। सामाजिक दृष्टि से रहट लोक संचार का सामुदायिक स्थल था। जिस किसान के पास रहट नहीं होता था वह अपने पड़ोसी किसान के रहट से अपने खेत सींचने का काम करता था।

सिंचाई के लिए कुओं से पानी निकालने के लिए बनाए गए यंत्र विशेष को रहट, रंहट, चरखा, घाटीयंत्र, आदि नामों से भी जाना जाता है। वेदों में अरगराट (अरघट्ट) शब्द का प्रयोग जलयंत्र के रूप में हुआ है, जिसका अभिप्राय है कि ऐसा कुआ, जिस पर रहट से सिंचाई होती हो। दरअसल, जिस कुएं में सिंचाई के लिए रहट का प्रयोग होता है, उसी को रहटआला कुआं कहा जाता है। पक्के कुएं में ही रहट की स्थापना होती है। रहट में मूलत: तीन चक्कर होते हैं, जिन्हें घड़ी के चक्रों की भाति एक-दूसरे से व्यवस्थित करके पानी निकाला जाता है। सबसे पहले रहट की स्थापना करने के लिए कुएं के बीचों-बीच एक लकड़ी रखी जाती है, जिसे बड़सा तथा बरसा कहते हैं। कुएं के ऊपर रहने वाले एक चक्र और बाहर के यंत्रों को जोड़ने वाला लोहे का एक मोटा और लंबा डंडा होता है, जिसे लट्ठू कहते हैं। लट्ठू के कुएं वाले छोर पर लोहे के दो बड़े चक्र लगे होते हैं, जो सामानांतर रूप से लोहे की सलाखों से जुड़े हुए होते हैं। इन्हें बेड़ अथवा बाड़ कहते हैं। इसी बाड़ के ऊपर लोहे की बालटियों एवं टींडरों को जोड़कर एक माला का स्वरूप प्रदान किया जाता है, जो बेड़ के ऊपर घुमकर कुएं के अंदर से पानी लाती हैं। बाल्टिया जब अंदर से आती हैं, तो वह सीधी होती हैं। कुएं के ऊपरी भाग पर जब उनका मुंह नीचे की तरफ होता है, तो उनका भरा हुआ पानी पाड़छे में गिरता है और इस प्रकार एक के बाद एक बाल्टी पानी भरकर लाती रहती हैं और लगातार बाल्टिया तथा टींडरों के माध्यम से पानी खेतों को सिंचता है। देहात में जहा पहले लोहे की बाल्टियों के स्थान पर मटकों का प्रयोग होता रहा है। वास्तव में रहट ढ़ेकली परंपरा का विकसित स्वरूप है।