हमीर उत्सव को उपमंडल स्तर पर आयोजित किए जाने की आवश्यकता।

हमीरपुर 14 फरवरी। ज़िला हमीरपुर में हमीर उत्सव और होली मेले का आयोजन किया जाता है, लेकिन हमीर उत्सव को उपमंडल स्तर पर आयोजित किए जाने की आवश्यकता है ताकि लोग अपने इलाके में ऐसे उत्सवों को करीब से देख सकें और सरकार और विभिन्न विभागों की प्रदर्शनियों के माध्यम से योजनाओं को जाने और स्थानीय स्तर पर समूहों के उत्पादों की खरीददारी कर सकें। यहां जारी एक बयान में साहित्य एवं संस्कृति कला प्रेमी व वरिष्ठ कलाकार संजय शर्मा ने कहा है कि सुजानपुर में हर साल राष्ट्र स्तरीय होली मेले का आयोजन किया जाता है तो शेष उपमंडल स्तर पर हमीर उत्सव रोटेशन के तहत होना चाहिए। सुजानपुर शहर में होली मेले का आयोजन मार्च में किया जा रहा है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लोक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए ललित कला को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। अन्य जिलों की तर्ज़ पर यहां लोक विधाओं को उभारना भी जरूरी है, बदलते परिवेश में बहुत कुछ बदल रहा है लेकिन यहां का दहाजा, गुगा मंडली, चाटकी, तुंबा शैली पर लोक गायकी और पारम्परिक वाद्य यंत्रों पर लोक धुनों को बढ़ावा देना चाहिए। लोक गाथाओं को भी तब्जो मिलनी चाहिए। कुछ एक युवा हैं जो मंडली गाने की विधा में पारंगत हो रहें हैं लेकिन वो हारमोनियम पर गा रहे हैं लेकिन इसमें कांस्य की थाली, डमरू और ढोलक की टीम कहीं बेहतर है ये पारम्परिक विरासत भी है। आधुनिक कला में माहिर होना बुरी बात नहीं लेकिन सांस्कृतिक विरासत में माहिर कलाकारों को भी बढ़ावा मिलना चाहिए। माना अब लोग तेज़ संगीत की ओर भी बढ़ रहें हैं खास कर युवा पीढ़ी का काफी अंदाज़ बदल भी रहा है, पर विलुप्त होती विधा, कला, गीतों और गाथाओं का संरक्षण और संवर्धन भी जरूरी है अन्यथा बढ़ रही यूट्यूब और यूएसबी ड्राइव पर बजते संगीत पर आधुनिक नृत्य की प्रस्तुति कहीं न कहीं नए पड़ाव व अंदाज़ की ओर संकेत कर रही है। हरेक मां बाप चाहते हैं इनके बच्चे आगे बढ़ें लेकिन पिछले कुछेक सालों से देखने में आया है कि नन्हें बच्चों के एकल नृत्य सीडी प्ले पर हो रहे हैं लेकिन जिस बच्चे को अभी स्कूल में आगे बढ़ना है लेकिन उनको मंच पर ला खड़ा कर दिया जाता है और वो नन्हें कसौटी पर खरा नहीं उतर पाते हैं राष्ट्र और राज्य स्तरीय मंच पर। इस तरह के एक्ट पर सवाल लोगों द्वारा भी उठाए जाते रहे हैं। जिस स्तर का मंच है उस स्तर की गुणवत्ता का होना आवश्यक है। जुगाड और तिकड़म बाजी से कॉपी हो सकती है लेकिन मौलिकता की अपनी अनूठी गरिमा होती है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। शौक अपनी जगह पर कसौटी पर खरा उतरना अपनी जगह है और वो सुर साधना का स्तर स्वयं अपना परिचय देता है। सूफ़ी गायकी में ज़िला में युवा पीछे नहीं हैं। बहू आयामी प्रतिभा के धनी लोगों की कमी भी नहीं है लेकिन लोक गीतों के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ कर आधुनिकता के रंगने के प्रयास भी उचित नहीं है।